Facebook
Twitter
WhatsApp
Linkedin
Telegram

गरीबों के लिए रोटी जुटाने वाले ठेले गरीबों की लाशें भी ढो रहे हैं. कभी धर्मवीर भारती ने ठेले पर बर्फ की सिल्ली लदी देखकर ‘ठेले पर हिमालय’ लिखा था. आज कोरोना काल में ठेले की भूमिका बढ़ गई है. रेल नेटवर्क और बसोंं के बेड़ोंं ने मनुष्यों की मदद करने से इनकार कर दिया है. लेकिन ठेलोंं ने मनुष्योंं का साथ देने से मना नहींं किया. ठेले पर लाशें भी दिख रही हैं और ठेले पर इंसान भी जा रहे हैं. जो ठेले सामान ढोया करते थे, अब लग रहा है जैसे पूरी मानवता ठेले पर सवार है.

राजधानी दिल्ली की लाज बचाने के लिए एंबुलेंस नहीं मिली. पांच साल से प्रचार सुन रहे थे कि विश्वस्तरीय मेडिकल सुविधा होगी. शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र मेंं क्रांति का दावा था. दावा हवा हो गया. ठेले लाश ढो रहे हैं. लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल से ठेले पर शव निकला और इंडिया गेट की ओर जाते देखा गया.

दिल्ली में ठेले पर लाश का यह पहला दृश्य होगा, लेकिन ठेले पर मानवता का पहला या आखिरी दृश्य नहींं था. कोरोना काल में ठेले का महात्म्य जानना हो तो भारत के राजमार्गों से पूछिए. ठेलों ने हजार-दो हजार किलोमीटर का सफर तय किया है. धक्का-पलेट ठेलों ने साइकिल-ठेलों को पूरी टक्कर दी. साइकिल-ठेलों ने पांव में छाले नहीं पड़ने दिए, लेकिन धक्का-पलेट ठेलोंं ने भी किसी बाप के पैरोंं का कम साथ नहीं दिया है. साइकिल-ठेलों के उलट, धक्का-पलेट ठेलोंं की मजबूरी है कि वे बिना धकेले नहींं चल सकते, वरना किसी बाप के पांंव मेंं छाले भी न आते.

बिहार के खगड़िया जिले में गोगरी जमालपुर निवासी रामजी शाह से ठेले की महिमा पूछिएगा. रामजी शाह अपने बेटे पवन शाह के साथ बीस वर्षों से कोलकाता में ठेला चलाते थे. वे बड़ाबाजार के आलू गोदाम से आलू ढोते थे.
कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन हुआ तो कामकाज ठप्प हो गया. डेढ़ माह बेरोजगार बैठे रहे. घर में खाने-पीने की दिक्कत शुरू हो गई तो बाप-बेटे अपना साइकिल-ठेला लेकर बिहार चल पड़े. ठेले की यह भी खूबी है कि दो लोग उसे बारी-बारी से चला सकते हैं. अगर हाथ-ठेला यानी धक्का-पलेट सिस्टम वाला है तो भी बारी-बारी धकेल सकते हैं.

यूपी में एटा के निवासी मनोज परदेस कमाने गए थे. वे जयपुर में सब्जी का ठेला लगाते थे. मनोज के माता-पिता, बच्चे-बीवी सब साथ में रहते थे. लॉकडाउन ने भागने पर मजबूर किया तो ठेला काम आया. जयपुर-आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग मनोज की ठेला यात्रा का गवाह बना. मनोज ने पूरे परिवार को ठेले पर लाद लिया और अपने घर पहुंच गए.

समस्तीपुर के सुरेंद पासवान को भी ठेले ने बचा लिया. सरकार ने ट्रेन चला दी थी, वह ट्रेन कहीं किसी ग्रह पर चल रही होगी, लेकिन सुरेंद्र के काम की नहीं थी. ठेला सुरेंद्र के काम आया. लॉकडाउन मेंं रोटी की मुुसीबत हो गई. पैसे खत्म हो गए. सुरेंद्र के पास ठेला नहीं था. उन्होंने किसी तरह पैसे का जुगाड़ किया और एक साइकिल-ठेला खरीदा. पूरा परिवार और घर गृृहस्थी ठेले पर लाद ली और समस्तीपुर निकल पड़े. सुरेंद्र ने कसम खा ली है कि जब संकट में ठेले का ही सहारा है तो अब दोबारा कभी दिल्ली नहीं जाएंगे.

औरैया नरेश राजेश कुमार कानपुर में छोला-भटूरा बेचते थे. जब लगा कि घर जाने के सिवा कोई चारा नहीं है तो उन्हें भी ठेले में ही उम्मीद नजर आई. जिस ठेले पर छोले का भगोना, भटूरे की परात रहती थी, उस जगह पत्नी और बच्चे को रख लिया और घर की ओर चल दिए. पुुलिस ने उन्हें रोका, अड़चन पैदा की, ठेले ने उनकी मुसीबत आसान कर दी. ऐसी नजीरों ने साबित किया है कि ठेला हमारी सरकारों से ज्यादा उपयोगी चीज है.

लॉकडाउन को दो महीने हो गए हैं. आज 24 मई को भी ठेला-यात्राएं जारी हैं. सारी दुनिया रुक गई है. सरकारेंं लगभग मर गई हैं. ठेले जिंंदा हैं. वे इंसानों को घर ले जा रहे हैं. ताजा सूचना है कि लखनऊ-आगरा राजमार्ग पर रामू ठेला लेकर चल रहे हैं. रामू अलवर से चले हैं और कटिहार जाना है. ठेले पर गर्भवती पत्नी है और एक बच्चा है. सफर लंबा है तो पति पत्नी और ठेला तीनोंं एक दूसरे का साथ दे रहे हैं. पति थक जाता है तो पत्नी उतर कर धक्का लगाती है, पति को पेट में पल रहे बच्चे का ख्याल आता है तो पत्नी को मना कर फिर से बैठा लेता है. इस लेख में मुझे इस पंंक्ति का दोहराव जरूरी लग रहा है कि ठेले हमारी सरकारों से ज्यादा उपयोगी हैं.

जहां कोई उम्मीद नजर नहीं आई, वहां भी ठेले ने उम्मीद दी. गोरखपुर के बेनीगंज की सावित्री देवी की तबीयत खराब हो गई. खून की उल्टी होने लगी. बेटेे ने एंबुलेंस के लिए फोन किया. फोन रिसीव करके, पता पूछकर भी एंबुलेंस नहींं आई. साबित्री देवी को उनके बेटे ठेले पर लादकर अस्पताल ले गए. अस्पताल का नाम भले ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस चिकित्सालय हो, इससे क्या फर्क पड़ता है अगर वहां काम आने लायक तंत्र मौजूद न हो. सावित्री देवी ने ठेले पर ही प्राण त्याग दिया. नेताजी के नाम पर बना अस्पताल उनके किसी काम न आया. संतोष बस इतना है कि ठेले ने सरकारों की तरह अपनी जिम्मेदारी से इनकार नहीं किया.

ठेलों की अनगिनत कहानियां देखसुन कर मेरे मन में आ रहा है कि काश ठेला हमारा प्रधानमंत्री होता! प्रधानमंत्री न सही, मुख्यमंत्री ही होता! मुख्यमंत्री न सही, स्वास्थ्य मंत्री होता तो ज्यादा लोगों की जान बच सकती थी. ठेलों की तुलना में हमारे नेता बेहद निठल्ले हैं. ठेले 18 घंटे मेहनत करने का दावा नहीं करते, लेकिन मुसीबत में काम आते हैं.

कोरोना काल में ठेलों ने इंसानोंं का साथ दिया, इंसानोंं ने ठेलों का साथ दिया, इंसानोंं ने इंसानोंं का साथ दिया. पुलिस ने जहां दांंव पाया, इन दोनों को तोड़ा. सड़क पर चलते इंसानों को भी तोड़ा, सड़क पर चलते ठेलों को भी तोड़ा और सड़क के किनारे खड़े ठेलों को भी तोड़ा. इंंसानोंं की हड्डी हो या ठेले की लकड़ी, तोड़ना ही पुुलिस की रचनात्मकता है. सरकार इन तीनोंं से ज्यादा रचनात्मक है, वह तीनों को तोड़ती है.

यूपी और बिहार के तमाम लोग ठेला चलाते हैं, लेकिन वे अभी अपनी सरकारों को नहीं चला पाते. ठेले को धकेल कर दिल्ली या कोलकाता से बिहार पहुंच जाते हैं, लेकिन सरकारें लखनऊ और पटना में ही धंसी रहती हैं. ठेलोंं को धकेला जा सकता है. वे सरकारों की तरह पत्थर नहीं हो जाते जो धकेले से भी न चले. ठेले चलते रहते हैं. ठेले सरकारों से अच्छे होते हैं. मनुष्य की मुसीबत में काम आते हैं.

इन दृश्यों को देखकर कुछ ने कहा, दुखद है. कुछ ने कहा, हृदयविदारक है. कुछ ने इसे थाली बजाने का हासिल माना होगा.

लॉकडाउन में ठेले की अनगिनत कहानियां हैं. एक सर्च पर हजार कहानियां उपलब्ध हैं. हजार तस्वीरें उपलब्ध हैं. एक सरकार ही है जो हजार चीखों पर उपलब्ध नहीं होती. काश सरकारें भी ठेले की तरह धक्के से ही सही, चलायमान और उपयोगी होतीं.

आप सोचेंगे यह क्या था. मैं भी सोच रहा हूं कि ‘बक रहा हूं जुनूंं में क्या क्या कुछ, कुछ न समझे खुदा करे कोई’.

कृष्णा कांत के फेसबुक बॉल से