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Jayant Sinha Garlands Lynching Convicts

साधुओं की लिंचिंग क्यों हुई, ये सेकुलरों से मत पूछिए। उनसे पूछिए जो लिंच मॉब को माला पहना रहे थे। भीड़ की हत्या को वैधता देने वाले सूत्रधारों से पूछने की हिम्मत नहीं है, इसलिए आप लेखकों-पत्रकारों को ताना मार रहे हैं। उनको अवार्ड वापसी गैंग बताने में भी आप ही सबसे आगे थे। अपनी आत्मा से पूछिए।

झारखंड से लेकर यूपी तक, दादरी से लेकर राजस्थान तक लिंच मॉब को “भगत सिंह के बच्चे” कौन लोग बता रहे थे? इंसपेक्टर सुबोध कुमार तो हिंदू थे, उनके हत्यारों को माला किसने पहनाई? कौन बता रहा था कि इंस्पेक्टर से ज्यादा जरूरी है गाय पर बात करना?

उन्माद और घृणा में बुद्धि खो न गई हो, तो याद कीजिए कि लेखकों को अवार्ड वापसी गैंग क्यों कहा गया? इसलिए कि वे भीड़ के कानून के खिलाफ बोल रहे थे, अपने पुरस्कार वापस करके विरोध कर रहे थे।

हत्याप्रेमी गैंग के लिए निराशा की बात है कि बहुत कोशिश के बाद भी कोरोना से लेकर महाराष्ट्र तक मामला ठीक से हिंदू-मुस्लिम में तब्दील नहीं हो पा रहा है। पालघर में लिंचिंग करने वाले और मरने वाले एक ही समुदाय के लोग हैं।

पालघर लिंचिंग उतनी की वीभत्स घटना है जितनी दूसरी घटनाएं थीं। हत्या अलग अलग मीटर पर नहीं नापी जाएगी। फिर भी इस पर प्रतिक्रिया अलग ढंग से क्यों आ रही है। जो लोग मॉब के लिए माला लेकर खड़े थे, वे मानवतावादी कैसे हो गए? जवाब है घृणा का घिनौना एजेंडा। यही वह रवैया है, जिसने एक घिनौने अपराध को वैधता देने की कोशिश की।

सेकुलर तब भी कह रहा था कि इसे रोक दो, सेकुलर आज भी कह रहा है इसे रोक दो। सेकलर बुद्धिजीवी के पास क्या ताकत थी? उसने अवार्ड वापस करके विरोध किया तो उसका मजाक उड़ाया गया।

कानून और अदालतों को ठेंगा किसने दिखाया? भीड़ का न्याय शुरू कैसे हुआ? कभी गाय के बहाने, कभी कोरोना के बहाने, कभी चोरी के बहाने, भीड़ के मुंह में खून लग चुका है। इसका सूत्रधार कौन है?

अब भी खुलकर इसकी निंदा करने में किसका हलक सूख रहा है? क्या भारत मे पहले अपराध नहीं होते थे? क्या अपराधी को सजाएं नहीं हुईं? भीड़ का न्यायतंत्र क्यों खड़ा किया गया? सवाल उठाने वाले को देशविरोधी कौन बोल रहा था?

जो लोग सेकुलरिज्म का आज मजाक उड़ाते हैं, क्या वे समझते हैं कि किसी भी युग में साम्प्रदायिकता को बड़े सम्मान से देखा जाएगा? मजाक उड़ाने वाले इस देश का और लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहे हैं।

सेकुलरिज्म लोकतंत्र का अभिन्न अंग है, कम्युनलिज्म लोकतंत्र का दुश्मन। आप इस का नुकसान भले कर रहे हैं, क्रूरता और बर्बरता को आप मानवीयता सिद्ध नही कर सकते। ऐसा करने की कोशिश में तमाम धरतीपछाड़ आये और इसी माटी में बिला गए।

विरोधियों की मत सुनिए, तो कम से कम लोकतंत्र के लिए घृणा की राजनीति को हतोत्साहित कीजिए। वरना अखलाक से शुरू सिलसिला इंसपेक्टर सुबोध तक पहुंच गया तो साधु-संत, और आम नागरिक की क्या हैसियत है? मध्यकालीन बर्बरता, जिसे दुनिया सदियों पहले त्याग चुकी है, यह आपको कहीं का नहीं छोड़ेगी।

ये आर्टिकल पत्रकार कृष्णकांत के फेसबुक वाल से ली गयी